झुके हुए दरख्तों के पार
झांकती है
एक किरण
बुझी सी अनमनी सी
पूरते सपनों के हर रंग को
डुबो डुबो जाता है
गाढ़ा अंधेरा
अनिश्चित को चाहते हुए
असमंजस की दीवारों से घिर जाती हूं
तो
पर्त सी खुलती है
कि
चांद तो दूर कहीं दूर
आंधियों के पार , घिर , जा चुका
रेतीली चक्रवातों के बीच
डगमगाती खड़ी हूं
किसी नए क्षितिज की तलाश में.